Sunday 7 October 2012


अजनबीयत के बीच...



दिल्ली यूं तो दिलवालों का शहर है, पर जहां तक मुझे लगता कि दिल्ली अनजानों का शहर है। हर दूसरा शख्स यहां आपसे पता पुछता नजर आता है तो हर तिसरा शख्स पता बताता नजर आता है यूं ही चलते चलते कोई शख्स आपको आज दिखे तो इसकी गुंजाईश कम ही होगी की अगली बार शख्स आपको दिखें। सुना है कि अगर आपको दिल्ली घूमना हो रात को दिल्ली में घूमें इससे दिल्ली दिल में बस जाती है ये तो है दिल्ली के दिल वालों की बात है,खैर बात फिलहाल मेरे और दिल्ली की।
दिल्ली आया था अपनें कीमती सपनें के साथ बगैर दोस्तों के ये शहर बेगाना लग रहा था। चारों ओर अजनबियों से घिरा हुआ में अपनों से सैकड़ों किमी. दूर यहां उदास बैठा सोच रहा था कि अगर अपना मेरा शहर भी अनजाना होता तो अजनबीयत मुझे इस पर इस कदर हावी ना होती। कि यूं ही पार्क मैं बैठा मैं कब्र में दफन सा महसूस ना करता, इस दिलवालों के शहर दिल्ली में इस दिलेर के साथ कोई भी दिलवाला नहीं था। अपनों से दूर लेकिन अपने सपने के साथ बेचैन था यूं कहो तो उदास था इतना उदास कि पहला पखवाड़ा बिना शेविंग किये ही में रहा, सोचा रहा था काश कि सपने भी अपनेपन का एहसास करा पाता, अनजान शहर में अजनबीयों के बीच अजनबीयत तो खत्म होती।
यूं ही एक दिन फेसबुक पर हलचल के दौरान बचपन के दोस्त जो उम्र में हमउम्र की सीमा से थोड़ी ही उपर पर दोस्त, दिखायी दिये तुरन्त बात शुरू की तो पता चला कि वो आजकल दिल्ली में ही हैं। तो अगले दिन इण्डिया गेट घूमने का प्लान बना पहली बार दिल्ली में घूमने जा रहा था। घूमने के लिये शाम के 5.30 का समय रखा गया बस जी पहुंच गये दिल्ली मैट्रो रेल के केन्द्रीय सचिवालय, स्टेशन के बाहर काफी हलचल थी, घूमने वालों की इस बात से अन्जान में भूमिगत बने स्टेशन से बाहर आया तो शाम की लालियां व दोस्त दिल्ली में स्वागत करते नजर आये। पहली बार दिल्ली में किसी ने स्वागत किया तो अच्छा लगा अजनबियों के बीच
अपनों का साथ मिला तो शहर से मेरी अजनबीयत एक पल के लिये खतम सी हो गयी। कुछ पलों की मस्ती के बाद साथ थी तो केवल अजनबी शहर में मेरी तन्हा रात की तन्हाई, शहर की अजनबीयत और मेरा अपना सपना। जो कभी भी मुझे अपनेपन का एहसास भी ना कराता। के बावजूद भी मैने अपने सपने को इस शहर के अजनबीयत के खौफ से दूर रखा खैर, यही तो अजनबी शहर में मेरा अपना पर अपनेपन के एहसास से दूर इतना जितना की मुझसे मेरा शहर अपना घर।
और कवि की ये पंक्तियां
अपना कितना प्रिय होता है।
यह शब्द जिससे जुड़ा होता है।
अपना शहर, अपना गांव, अपना घर।
अपनी गली और अपना आंगन।
कितनी सुन्दर स्मृतियां समेटे होता है
स्वयं में अपना।
(फोटो मेरे अपने शहर बागेश्वर ​की एक शाम । )
सचमुच अपना तो वाकयी अद्भुत अतुलनीय सुन्दर स्मृतियों से सजा होता है।
अजनबीयत व तन्हाईयों के बीच कई बार अपना सपना छोड़ कुछ और करने का आइडिया आया। कम्बख्त ये आइडिया भी बड़ा मशीनी है। आइडिया आते ही लोग झटपट उसे अपना लेते हैं। शुक्र है भगवान का की मैं थोड़ा सा आलसी हूं। आइडिया आजकल के फेर में पड़ा और जाने कहां गुम हो गया, आइडिया होता ही ऐसा है कि झटपट ना अपनाओ तो जाने कहां गुम हो जाता है शायद इसीलिए लोग झटपट इसे अपनाते हैं। तभी मैंने   इसे मशीनी शब्द बोला। वाकई कमाल का होता है आइडिया।
और ये अजनबीयत भी बड़ी गजब है। अब इसे इन्जॉय कर रहा हूं। ते शायद इसलिये लिख भी रहा रहा हूं।
सोच रहा था गर अपना शहर भी अजनबी होता तो अपने ही शहर में अनजान लोग, अनजान रास्तें और हर पल अजनबीयत का एहसास तो फिर आप दुनिया के किसी भी कोने में चलें जायें तो अजनबीयत तुम्हारे साथ होगी।  और बगैर किसी परेशानी के आप अजनबीयत का लुत्फ उठाएगें।
आज इस शहर में मुझे जुम्मा- जुम्मा एक साल होने को और शहर से मेरी अजनबीयत चरम पर है या कहूं की शहर के बारे जानने की लालसा जोरों पर है शायद यही कारण है कि अपने शहर को करीब से जानने की इच्छा हमें कभी नहीं होती है। क्योंकि अपने शहर से हमें अजनबीयत नहीं होती है नहीं होती या कहूं कि अपनों से हमें अजनबीयत नहीं होती।
   

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